Monday, February 2, 2009

यात्रा

उस रोशनी की चाह में , इक अँधेरा खो गया
उस अँधेरे के ह्रदय में भी एक दीप प्रज्वलित हो गया
कब से ये दीप ह्रदय में था और कब से शुरू थी यात्रा
उस मापदंड का पैमाना भी न जाने आज कहा खो गया
बेखोफ निडर सा बढ़ रहा वो तोड़कर अपनी बेडियाँ
क्योंकि आज उस रोशनी का प्रतिबिम्ब जो उस पर हो गया
रोशनी की स्वर्ण छटाएँ जब उस पर झूमतीं
बांसुरी रूपी मधुर तरंगें कर्ण उसके चूमतीं
उस तम् का चंचल चितवन म्रदंगनी में जाकर सो गया
और रोशनी का दिव्य लेकर वो आज पावन हो
पथ तो अग्रिम बहुत है और मीलों का है ये सफ़र
अब जाना है उसको लौटकर शेष तमों के वास्ते
क्योंकि दिव्या का सन्देश अब उद्देश्य उसका हो गया
रोशनी तो हम सब पर है पहचानना भर शेष है
भूल कर हर क्लेश को मिटाना अब द्वेष है
और अब भी न जागा जो
वो अँधेरा उन अंधेरों में ही खो कर सो गया
अब पतित होता वो दिया तम् के सन्दर्भ में आकर रो दिया